शिक्षा के क्षेत्र में आज बेशक भारतीय शैक्षणिक संस्थान दुनिया के फलक पर शीर्ष पर न हों लेकिन अतीत में एक काल ऐसा भी रहा जब भारतीय शैक्षणिक संस्थानों में दुनिया भर से विद्यार्थी पढ़ने आते थे। आज हम चर्चा कर है भारत के सर्वाधिक प्राचीन विश्वविद्यालयों में से एक नालंदा की जो एक महत्वपूर्ण एवं विश्वविख्यात शैक्षणिक केंद्र था। अपनी स्थापना के बाद से ही इस आवासीय विश्वविद्यालय नें मध्य और पूर्वी एशिया के विभिन्न भागों जैसे कोरिया जापान चीन तिब्बत इंडोनेशिया फारस आदि के कई प्रसिद्ध विद्वानों और छात्रों को शिक्षा ग्रहण करने हेतु अपनी ओर आकर्षित किया । कालांतर में पूर्व मध्यकाल की विषम परिस्थितियों नें इस विश्वप्रसिद्ध शिक्षा के केंद्र को नेस्तनाबूत कर दिया । इस ब्लॉग में हम प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय के इतिहास, शिक्षा प्रणाली और इसके शैक्षणिक योगदान पर चर्चा करेंगे ....
नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना
नालंदा विश्वविद्यालय मूलतः एक बौद्ध विहार था जो कालांतर में एक विश्वप्रसिद्ध विश्वविद्यालय के रूप स्थापित हो गया। इस विश्वविद्यालय की स्थापना का श्रेय शक्रादित्य को दिया जाता है जिसकी पहचान गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम (415-455 ई.) के रूप में की गयी है। कुमारगुप्त प्रथम की एक प्रसिद्ध उपाधि महेन्द्रादित्य की थी। चन्द्रगुप्त - II के समय में आने वाले चीनी यात्री फाह्यान (399-411 ई.) नें नालंदा विश्वविद्यालय का जिक्र नहीं किया है जबकि सातवीं शताब्दी में आने वाले ह्वेनसांग और इ त्सिंग नें नालंदा विश्वविद्यालय का वर्णन किया है। हर्ष काल तक आते आते नालंदा महाविहार एक अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के विश्वविद्यालय के रूप में परिणित हो चुका था। इसे हर्षवर्धन के साथ साथ पाल शासकों का भी संरक्षण प्राप्त हुआ। नालंदा विश्वविद्यालय का धर्मपाल ने पुनरुत्थान किया और उसका खर्च पूरा करने के लिए उसने 200 गांव अलग कर दिए थे। शैलेन्द्र शासक बालपुत्र देव नें भी पाल शासक देवपाल के दरबार में राजदूत भेजकर नालंदा में एक मठ बनवानें की अनुमति माँगी तथा उसके रख रखाव के लिए पाल शासक देवपाल से 5 गांव देने की प्रार्थना भी की जिसे मान लिया गया।
नालंदा विश्वविद्यालय का परिसर
नालंदा विश्वविद्यालय के अवशेषों के उत्खनन से ज्ञात होता है कि नालंदा विश्वविद्यालय काम से काम एक मील लम्बा और आधा मील चौड़ा था। इसका पूरा परिसर एक विशाल दीवार से घिरा हुआ था जिसमे एक मुख्य द्वार था। नालंदा विश्वविद्यालय शिल्पकला का एक अद्भुत उदाहरण था। यहाँ 300 कमरे 7 बड़े कक्ष और एक विशाल पुस्तकालय था। नालंदा के खंडहरों में विहारों, स्तूपों , मंदिरों तथा मूर्तियों के अगणित अवशेष पाये गये हैं। बुद्ध की एक सुन्दर धातु प्रतिमा यहाँ से पायी गयी है। मिट्टी की मुहरें भी यहाँ से प्राप्त हुई हैं।
नालंदा विश्वविद्यालय में छात्रों का प्रवेश
637 ई . में जब ह्वेनसांग नालंदा आये थे तब यह विश्वविद्यालय अपने चरमोत्कर्ष पर था।विद्यार्थियों का प्रवेश नालंदा विश्वविद्यालय कठिनाई से होता था। इस विश्वविद्यालय में प्रवेश पाने वाले विद्यार्धी को द्वार पंडित द्वारा ली जानें वाली प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण होना अनिवार्य था। ह्वेनसांग के अनुसार 10 में से 2 या 3 विद्यार्थी ही प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण हो पाते थे।ह्वेनसांग ने यहाँ लगभग डेढ़ वर्ष तक शिक्षा ग्रहण की। उनकी विद्वत्ता पर मुग्ध होकर नालंदा के विद्वानों ने उन्हें मोक्षदेव की उपाधि दे थी। ह्वेनसांग के अलावा इत्सिंग, हुइली तथा हाइनीह यहाँ आने वाले विदेशी यात्रियों में प्रमुख थे। यहाँ अध्ययन के लिए चीन चंपा कम्बोज जावा सुमात्रा ब्रह्मदेश तिब्बत लंका आदि से विद्यार्थी आते थे और विश्वविद्यालय में प्रवेश पाकर अपने को धन्य समझते थे। नालंदा विश्वविद्यालय पूर्णतः आवसीय विश्वविद्यालय था। नालंदा विश्वविद्यालय में प्रविष्ट छात्रों को अधययन की सुविधा निवास वस्त्र और चिकित्सा निःशुल्क प्रदान की जाती थी। ह्वेनसांग के वर्णन के अनुसार यहाँ 10,000 विद्यार्थी और 1500 से अधिक शिक्षक निवास करते थे।इत्सिंग यहाँ 3000 विद्यार्थियों के शिक्षा ग्रहण करने की बात कहता है। इस विश्वविद्यालय के खर्च के लिए सम्राटों, राजाओ द्वारा धन तथा गॉव प्रदान किये गए थे।
आचार्य
ह्वेनसांग के समय शीलभद्र यहाँ के कुलपति थे। अन्य विद्वानों में धर्मपाल, गुणमति, स्थिरमति, शान्तरक्षित आदि प्रमुख थे। इस विश्वविद्यालय में आचार्य मौखिक व्याख्यान द्वारा छात्रों को शिक्षा देते थे।
अध्ययन क्षेत्र
आज की तरह नालंदा विश्वविद्यालय में भी विभिन्न विषयों की शिक्षा दी जाती थी किन्तु यहाँ बौद्ध धर्म के महायान शाखा का अध्ययन अध्यापन विशेष रूप से होता था। यहाँ बौद्ध साहित्य और दर्शन के अतिरिक्त बौद्धेत्तर साहित्य और दर्शन का भी अध्ययन होता था। यहाँ वेद, वेदांग और सांख्य भी पढ़ाए जाते थे। व्याकरण, दर्शन, ज्योतिष, आयुर्वेद, शल्य विद्या, गणित, योगशास्त्र, तंत्रविद्या आदि की शिक्षा व्याख्यानों के माध्यम से दी जाती थी।
पुस्तकालय
नालंदा विश्वविद्यालय का अवसान
नालंदा सबसे पहला आक्रमण हूणों द्वारा किया गया था। स्कंदगुप्त के वंशजों ने नालंदा का पुनर्निर्माण कराया। इसके पश्चात सातवीं शताब्दी में भी गौड़ शासक द्वारा नालंदा पर आक्रमण किया गया था तब हर्षवर्धन द्वारा विश्वविद्यालय का जीर्णोद्धार कराया गया। मिन्हाज के वर्णन के अनुसार कुछ इतिहासकार यह मानते हैं कि 12 वीं शताब्दी में बख्तियार खिलजी द्वारा नालंदा पर आक्रमण कर नालंदा के पुस्तकालय को जलाया गया तथा धर्माचार्यों और भिक्षुओं की निर्मम हत्या की गयी जबकि नालंदा नाम का जिक्र मिन्हाज ने अपने वर्णन में नहीं किया है। यह भी कहा जा सकता है कि इस समय तक तंत्र के तरफ झुकाव के कारण बौद्ध धर्म की स्थिति काफी अच्छी नहीं रही थी और साथ ही नालंदा विश्वविद्यालय को पोषित करने वाले राजवंशो की स्थिति भी अच्छी नहीं थी जिसके कारण नालंदा उपेक्षित हो गया और धीरे धीरे अंधकार के गर्त में चला गया।
इसके पतन बाद इस स्थल की खोज सर फ्रांसिस बुकानन ने की थी। इसके पश्चात भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा व्यवस्थित रूप से खुदाई की गयी।
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