जब दो भिन्न प्रकार की वायुराशियाँ मिलती हैं तो उनके मध्य सीमा क्षेत्र को वाताग्र कहते हैं।
वाताग्र उत्पत्ति (Frontogenesis)
वाताग्रों के बनने की प्रक्रिया को वाताग्र-जनन (Frontogenesis) कहते हैं।
वाताग्र उत्पत्ति के लिए आवश्यक दशाएं :
1. वाताग्र बनने के लिए दो विभिन्न वायुराशियों के विपरीत लक्षण होने चाहिएं। यदि एक वायुराशि शीतल तथा शुष्क है तो दूसरी वायुराशि उष्ण तथा आर्द्र होनी चाहिए।
2. वाताग्र की उत्पत्ति के लिए दो वायुराशियों का अभिसरण (Convergence) अति आवश्यक है अर्थात् जब दो विभिन्न वायुराशियां विपरीत दिशाओं से आकर आमने-सामने से मिलती हैं तो वे एक-दूसरे एक ढालू तल पर पृथक करती हैं, जिसे वाताग्र पृष्ठ कहते हैं । वायुराशियों की गति वाताग्र को तेज करती है।
वाताग्रों का वर्गीकरण
वाताग्र चार प्रकार के होते हैं :
(i) शीत वाताग्र
(ii) उष्ण वाताग्र
(iii) अचर वाताग्र /स्थायी वाताग्र
(iv) अधिविष्ट वाताग्र
शीत वाताग्र : जब शीतल एवं भारी वायु आक्रामक रूप में उष्ण एवं हल्की वायु को ऊपर उठा देती है तो शीत वाताग्र का निर्माण होता है। धरातल के साथ घर्षण के कारण शीत वाताग्र प्रपाती होता है। किसी स्थान से इस वाताग्र के गुजरने पर तापमान में आकस्मिक गिरावट आ जाती है। वायु की दिशा में परिवर्तन के साथ ही हवा के तेज झोकों का अनुभव होता है। वायु दाब में आकस्मिक वृद्धि इसकी अन्य विशेषता है। इनके अतिरिक्त, मौसम तूफानी हो जाता है।वाताग्र की गति का भी मौसम पर प्रभाव पड़ता है। तीव्र गति से चलने वाले शीत वाताग्र के गुजर जाने के बाद आकाश शीघ्र मेघ रहित हो जाता है, जबकि मन्द गति वाले वाताग्र पर अधिक विस्तृत क्षेत्र में मेघाच्छादन तथा वृष्टि होती है।
उष्ण वाताग्र : यदि गर्म वायुराशियाँ आक्रामक रूप में ठंडी वायुराशियों के ऊपर चढ़ती हैं तो उष्ण वाताग्र का निर्माण होता है। उष्ण वाताग्र का ढाल हल्का होने के कारण मौसम में धीरे-धीरे परिवर्तन आता है। प्रायः मौसम के परिवर्तन में कई दिन लग जाते हैं। किसी स्थान पर उष्ण वाताग्र आने का सबसे पहला चिन्ह पक्षाभ मेघों (Cirrus Clouds) का प्रकट होना है। कुछ ही देर में ये पक्षाभ स्तरीय (Cirro Stratus) तथा उच्च स्तरीय मेघ (Alto-Stratus) में परिवर्तित हो जाते हैं। अगले दिन बादल बहुत नीचे हो जाते हैं ओर वर्षा स्तरीय मेघ (Nimbo Stratus) छा जाते हैं। आकाश पूर्णतया पेघों से ढक जाता है। तीसरे दिन वर्षा शुरू हो जाती है और एक या दो दिन निरन्तर होती रहती है। किसी स्थान से जब उष्ण वाताग्र गुजरता है, तो वहाँ तापमान तथा वायु दाब में वृद्धि अंकित की जाती है। वायु की दिशा में आकस्मिक परिवर्तन हो जाता है तथा मौसम बदल जाता है। वाताग्र के आगे बढ़ जाने पर वर्षा बन्द हो जाती है तथा आकाश में मेघाच्छादन आंशिक अथवा पूर्णरूप से समाप्त हो जाता है।
अचर वाताग्र /स्थायी वाताग्र : ऐसे वाताग्र जब कोई भी वायु ऊपर नहीं उठती। जब वायुराशियों में किसी प्रकार की गति नहीं होती है तो उनके मध्य का वाताग्र स्थिर वाताग्र होता है। जिस क्षेत्र में ऐसे वाताग्र का निर्माण हो जाता है वहाँ लगातार कई दिनों तक आकाश मेघाच्छादित रहता है जिस से फुहार अथवा वृष्टि हुआ करती है।
अधिविष्ट वाताग्र : यदि एक वायुराशि पूर्णतः धरातल के ऊपर उठ जाए तो ऐसे वाताग्र को अधिविष्ट वाताग्र कहते हैं। अधिविष्ट वाताग्र के मौसम के सम्बन्ध में निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता।
2 Comments
बेहतर जानकारी। आभार 🙏🙏
ReplyDeleteधन्यवाद
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