भूसन्नति एक लम्बा, संकीर्ण तथा छिछला समुद्र है जिनका तल लगातार भस्मशील होता है। यहाँ संकीर्ण और छिछला शब्द यह संकेत करता है कि सभी समुद्र भूसन्नति नहीं हो सकते हैं केवल वहीं समुद्र जो छिछले और लम्बे हैं, भूसन्नति के अनुकूल हैं। तल भस्मशील होना चाहिए क्योंकि तली के भस्मशील होने से मोटी परतों का जमाव आसान हो जाता है। यह क्रिया दीर्घकाल तक चलती रहती है। यदि ऐसा नहीं होता तो मोटी परतों का जमाव नहीं हो सकता है।
दीर्घकाल के सर्वेक्षणों के आधार पर यह विचार किया जाने लगा है कि वलित पर्वतों के ऊँचे भाग लम्बे समय तक समुद्र के रूप में थे क्योंकि इनकी चट्टानों में पाये जाने वाले सभी तत्व छिछले समुद्रों के तत्व हैं। वर्तमान समय में प्राय: सभी विद्वान मानते हैं कि प्राचीन अथवा नूतन सभी प्रकार के वलित पर्वतों का आविर्भाव भूसन्नतियों से हुआ है, जैसे रॉकी भूसन्नति, यूराल भूसन्नति तथा टेथिस भूसन्नति आदि से क्रमशः रॉकी, यूराल तथा हिमालय आदि पर्वतों का निर्माण हुआ है। यदि वर्तमान वलित पर्वतों की ऊंचाई तथा उनमें संलग्न चट्टानों की गहराई को देखा जाए तो भूसन्नतियों को अति गहरा होना चाहिए परंतु इन पर्वतों की चट्टानों में मिले सागरीय जीवो के अवशेष उथले सागर में रहने वाले हैं । अतः भूसन्नतियां जलीय भाग होती हैं जिनमें तलछट जमा होता रहता है जिस कारण उनकी तली निरंतर नीचे धंसती जाती है, परिणामस्वरूप अधिक गहराई तक अवसादों का जमाव हो जाता है ।
हाल एवं डाना की संकल्पना (Concept of Hall and Dana)
इनके अनुसार वर्तमान पर्वतों की चट्टानों के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि इन पर्वतों का निर्माण महासमुद्रों अथवा समुद्रों में नहीं हुआ । इनका निर्माण भूसन्नतियों में हुआ है। इन्होंने स्पष्ट किया कि भूसन्नतियाँ उथले समुद्र थी जिनमें अवसाद निरन्तर जमा होता रहा तथा तली नीचे धँसती रही। धँसाव के कारण अत्यधिक तलछट का जमाव हुआ। इन विद्वानों के अनुसार भूसन्नतियाँ अधिक चौड़ी नहीं थी क्योंकि मोड़दार पर्वत बहुत कम चौड़े हैं। यदि भूसन्नतियाँ अधिक चौड़ी होती तो इनमें मलवा का जमाव अधिक होता । फलस्वरूप उस पर लगने वाला बल कमजोर पड़ जाता तथा पर्वतों की उत्पत्ति सम्भव नहीं होती।
शुशर्ट की संकल्पना (Concept of Schuchert)
शूशर्ट ने भूसन्नतियों को तीन वर्गों में बाँटकर अपनी संकल्पना का प्रतिपादन किया है। ये भूसन्नतियाँ निम्नांकित प्रकार की हैं -
1. एकल भूसन्नति (Mono-geosyncline) – एकल भूसन्नति अधिक लम्बी तथा सॅकरी जलीय भाग होती हैं। इनमें तलछट का जमाव होता है। फलस्वरूप इनकी तली निरन्तर धँसती जाती है। इस प्रकार की भूसन्नतियों को एकल / एकाकी भूसन्नति इसलिए कहा जाता है कि इनमें भूसन्नति का केवल एक ही चक्र पाया गया है । अप्लेशियन भूसन्नति इसका प्रमुख उदाहरण है।
2. बहुल भूसन्नति (Poly-geosyncline) - बहुल भूसन्नति चौड़ा सागरीय क्षेत्र थी जिसकी चौड़ाई एकल भूसन्नति की अपेक्षा अधिक थी । इनका अस्तित्व अपेक्षाकृत दीर्घकाल तक बना रहता है। इनमें अवसाद का निक्षेप, धँसाव तथा बलन की क्रिया सम्भव होती है। रॉकी तथा यूराल भूसन्नतियाँ इसका प्रमुख उदाहरण हैं।
3. मध्यस्थ भूसन्नति (Meso-geosyncline) – मध्य भूसन्नति अत्यधिक गहरे, लम्बे तथा सॅकरे समुद्री भाग थीं इनमें कई बार निक्षेप, अवतलन तथा वलन की क्रिया सम्पन्न हुई है। इस प्रकार की भूसन्नतियाँ सदैव महाद्वीपों के मध्य में होती हैं। टैथीज भूसन्नति इसका प्रमुख उदाहरण है।
2 Comments
प्रेरक, ज्ञानवर्धक और भौगोलिक दृष्टिकोण से अपने ब्लॉग के शीर्षक को सौ फीसदी चरितार्थ करता हुआ पोस्ट।भूसन्नति बेहतर तरीके से प्रस्तुत किया गया है। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वालों के साथ साथ संबंधित विषय के अध्येताओं के लिए सुगम।🙏🙏
ReplyDeleteधन्यवाद
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